Gahoi Samaj India

जन्म सम्बन्धी संस्कार

गहोई वैश्य समाज के रीति-रिवाज एवं संस्कारों का विवरण

(जन्म से सम्बन्धित किये जाने वाले संस्कार एवं प्रचलित पूजायें)

जन्म से पूर्व गर्भवती महिला के आठवां मास प्रारम्भ होने पर घर की ज्येष्ठ महिलाओं द्वारा गर्भवती महिला को आठवां पहनाया जाता है । इसमें गहरे नीले रंग के वस्त्र तथा चूंडि़यां पहनाने की परंपरा है। तथा गर्भवती महिला के मायके पक्ष के लिए नारियल व मिठाई भेजकर सादो के उत्सव का अमंत्रण भेजा जाता है।

सादें -

गर्भवती महिलाओं के प्रथम बार गर्भ के 9 वें माह में सादों का कार्यक्रम होता है, जिसमें गर्भवती महिला को पिता पक्ष (मायके) द्वारा पुत्री के प्रथम बार मातृत्व धारण करने की खुशी में सुन्दर वस्त्र रत्न आभूषण एवं सुन्दर-सुन्दर खाद्य सामग्री दालें, चावल, बरी, बिजोरे, पापड़ मिष्ठान्न आदि तथा दामाद एवं समधिन आदि के लिये यथा शक्ति वस्त्र आभूषण भेजे जाते हैं तथा गर्भवती महिला को नन्दों द्वारा भी मेवा फल, मिठाईया, कपडे़ आदि गर्भवती महिला के लिए उपहार स्वरूप देकर उसके गर्भ की मंगल कामना करती है। जिनसे ससुराल में उत्साह एवं उल्लास पूर्ण वातावरण में (गर्भवती वधु) को नये परिधान में सजाकर घर की व रिश्ते नाते की ज्येष्ठ महिलायें रोरी, कुमकुम, तिलक लगाकर (वधू) का मंगल तिलक कर आरती उतारती तथा बलायें लेती हुई सकुशल निर्विध्न कार्य सम्पन्न होने की मंगल कामना करते हुये उपहार देती हैं, तत्पश्चात वधू के मायके पक्ष वालों का स्वागत सत्कार कर यथा शक्ति भेंट देकर विदा किया जाता है।
नोट :- वैसे यह कार्य आजकल चौक के समय ही पूर्ण किया जाने लगा है परन्तू अच्छा हो शिशु के जन्म के पूर्व ही किया जाये। क्योंकि सादों का अर्थ गर्भवती महिला की खानपान, वस्त्र आभूषण आदि से तृप्ति कर सभी इच्छाओं की पूर्ति करना होता है, इस अवसर पर खट्टी-मीठी चीजों जैसे दही, पेड़ा आदि भी खिलाया जाता है जिसकी जच्चा एवं बच्चा पर इसकी गहरी छाप पड़ती है। अन्य समाजों में इसको दही-भात भी कहते है।

जन्म संस्कार / चरूआ -

शिशु के जन्म होने पर परिवार तथा खास रिश्तेदार की महिलाओं को बुलाकर चरूआ चढ़या जाता है। पुरोहित जी द्वारा पूजन उपरांत बच्चे की जन्म पत्रिका बनाते है।
नोट :- यदि जच्चा को मूल पड़े हों तो विधि विधान के साथ मूल शांति का पूजन कराया जाता है। मूल पड़ने पर उसके भान्तार्थ 27000 या पुरोहित से पूछकर इच्छानुसार जप करावे। मूल उतरने के दिन ज्योतिषी से पूजन करावे पुराने कपड़े व अन्नदान 21/-रू संकल्प कर देवे। इसके उपरांत पुरोहित द्वारा पूजन करावे तथा कलस कुपरिया देवे, ब्राह्मणों को भोजन करावें पुरोहित व नाई को यथा योग्य भेट देवें।

बच्चा जच्चा की सुरक्षा के लिए स्वास्थय केन्द्रो का डाँक्टरों की सलाह जरूर लें।

नवागत शिशु का चौक संस्कार :-

यह नवजात शिशु के सार्वजनिक सामाजिक जीवन प्रवेश का बड़ा ही महत्वपूर्ण दस्तूर है। इस कार्य को बालक के जन्म से दसवें दिन अथवा तदुपरान्त अपनी मान्यता/ सुविधा अनुसार शुभ मुहुर्त में आयोजित किया जाना चाहिये। इसके आयोजन से पूर्व वहू के मायके में आंमत्रण दिया जाता है। आमंत्रण के साथ गुड़ के चार लड्डू (वजन कम से कम सवा किलो) 5 नग पेड़ा, बडे़ दूर्बा एवं 11/- रूपये एवं मिठाई 1 किलो भेजना चाहिये। साथ ही जच्चा की जितनी ननद हो अर्थात विवाहित पुत्रियों के यहां भी इसी प्रकार से 5 लड्डू एवं 5 पेड़ा, दुर्बा एवं मिठाई भेजना चाहिये। चौक समारोह का आयोजन सामर्थ्य अनुसार किया जाता है, इसी दिन मातृ पक्ष (मायके वालों) के यहां से पुत्र पुत्रियों तथा बहुओं को धूमधाम से पक्ष लेकर भेजा जाता है, जो अपने साथ पुत्री, दामाद तथा नवजात शिशु एवं समधिन, देवरानी, ननद आदि के लिये सामर्थ्य अनुसार, गुड़ के लड्डू, मिठाइयां, स्त्र,आभूषण, नवजात के लिये करधनी, पायल, पहुंची, गले के लिये हाय-चन्द्रमा अथवा माला या चैन, खिलौने आदि तथा अन्न दान के रूप में चावल, दालें, बरी, पापड़, बिजौरे वर्तमान प्रचलित स्टील बर्तनों में रखकर तथा छोटे गुदेली-पल्ली, तकिया, मच्छरदानी आदि भेजते है। चौक के दिन शुभ मुहुर्त में विद्वान आचार्य जी द्वारा चौक का पूजन कराया जाता है तथा आचार्य की दक्षिणा एवं कर्मियों को उनका नेग परिश्रमिक, नवजात शिशु तथा उसकी मां के हाथ में रखकर ही दिलाना चाहिये। इसी समय नवजाति शिशु की बुआ द्वारा सांतिया रखे जाते है तथा जच्चा द्वारा कुआं का या (नल का) पूजन किया जाता है। तत्पश्चात आमंत्रित अतिथियों को यथा शक्ति भोजन कराना चाहिये। भोजन प्रारम्भ से पूर्व नवजात शिशु को आये हुये सामाजिकपंच, बड़े बुजुर्गो आचार्य, बन्धु-बान्धव रिश्तेदारों के समक्ष गोद में लेकर स्पर्श तथा आशीर्वाद अवश्य दिलाना चाहिये, यही आशीर्वाद नवजातशिशु के जीवन प्रारंभ की संचित पूंजी हो जाती है तथा उस समय के छायाचित्र केवल मन बहलाव के साधन ही नहीं वरन ऐतिहासिक तथा प्रमाणिक दस्तावेज है। तत्पश्चात वधू के मातृ पक्ष को उनके अपने गृह प्रस्थान के समय यथाशक्ति मान सम्मान के साथ, वस्त्र, आभूषण, नगद राशि के साथ हल्दी, रोरी,तिलक लगाकर श्रीफल भेंटकर विदा करना चाहिये, कलेवा के साथ उनके घर के लोगो तथा बन्धु बान्धवों, मित्रों आदि में वितरण हेतु अलग से मिठाइयां अवश्य रखें।

बधाव (चंगेल) :-

यह कार्य नवजात शिशु की बुआ-फूफा द्वारा किया जाता है। बहनें, भाई के यहां सन्तान जन्म का समाचार पाकर आनन्द विभोर हो जाती हैं। भाई- बहन का प्रेम इस जगत में सनातन से अक्षय निधि के रूप में जाना जाता रहा है। इन रिश्तों के तुल्य जगत में कोई अन्य रिश्ता नहीं। इस अवसर पर बहिन अपनी सम्पूर्ण सामर्थ अनुसार उत्साहपूर्वक नवजात शिशु के लिये पालनाझूला (सुसज्जित) वस्त्र-आभूषण, खिलौने तथा भैया-भाभी एवं अन्य छोटे बच्चों के लिये वस्त्र -आभूषण उपहार लाती है तथा चौक कार्यक्रम में तन, मन, धन से सर्वाधिक खुशियों का इजहार करती हैं। हमें ध्यान रखना चाहिये कहीं से भी बहिन की खुशियों कम न हों, ऐसा आचरण करते हुये बड़ी ही उदारता से बहिनों की बिदाई करना चाहिये तथा बहिन- बहनोई के साथ उसकी सास के लिये भी वस्त्र आभूशण यथा शक्ति देकर एवं उनके द्वारा लाये गये सामान के सापेक्ष अनुसार देकर बिदा करना चाहिये। पूर्व काल में बहिनों द्वारा बड़े ही उत्साह के साथ गाजे- बाजे सहित पथ शोभा यात्रा निकाली जाती थी, जो नगर, गांव में निवास करने वाले पितृ पक्ष से सम्बन्धित परिवारों, खानदान एवं नाते रिश्तेदारों जिनकी गोद में वह पली-बढ़ी है, सभी द्वारों में सिर पर पालना रख कर जाती थी तथा अपने मायके पक्ष को आनन्द विभोर करती थी। बदले में सभी लोग अपनी बेटी का स्वागत सत्कार करते, आशीर्वाद देने के साथ ही यथा वस्त्र, धन, आभूषण आदि देकर बिदा करते थे। पर आज समयाभाव एवं घटते परस्पर प्रेम के चलते यह नेग मात्र ही रह गया है। शिशु के नामकरण का अधिकार भी सबसे पहले बुआ का है।

अन्नप्रासन (पानी) :-

यह संस्कार लगभग 5 माह की आयु होने पर शिशु को अन्न ग्रहण कराकर उसके शारीरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करना तथा समय-समय पर नाना प्रकार के सुस्वाद व्यंजनों से अवगत कराना है। यह कार्य घर में ही शुभ दिन तथा नक्षत्र चौघडि़यां आदि देखकर मुहुर्त अनुसार किया जाना चाहिये। बालक को उबटन स्नान के बाद नव वस्त्र पहनाकर शुद्ध साफ बर्तन में खीर बनाकर चांदी की चम्मच कटोरी में रखकर सर्वप्रथम घर के सबसे बुजुर्ग सदस्य के द्वारा बालक को खीर खिलानी चाहिये, तत्पश्चात सभी सदस्य शिशु को खीर चटायें। तात्पर्य यह कि घर का हर सदस्य बालक के पोषण का उत्तरदायी है। आजकल अनेक समस्याओं के चलते यह कार्य दो माह उपरान्त कभी भी किया जा सकता है।

मुण्डन संस्कार :-

यह कार्य बालक की 6 माह की उम्र से लेकर 1 वर्ष के अन्दर ही किया जाना चाहिये। इस संस्कार को सम्पन्न करने हेतु पूर्वजों द्वारा निर्धारित मान्यतापूर्ण जो भी पूज्य देवस्थान पर जाकर शिशु की झालर उतरवाना चाहिये। समयाभाव के कारण स्थान परिवर्तित होने या अधिक दूरी होने के कारण यदि जाना संभव हो तथा समय पर संस्कार करवाना आवश्यक हो, तो पूर्व मान्यता प्राप्त देवी-देवता का चित्र रख कर किसी भी धार्मिक स्थल में जाकर ही कार्य पूर्ण कर लेना चाहिये। इसका शुभ मुहुर्त अपने पुरोहित से पूंछ लें अन्यथा दोनों नवरात्रि काल सर्वमान्य शुभ मुहुर्त हैं। बालक के मुण्डन के समय झालर लेने हेतु बुआ की आवश्यकता होती है, क्योंकि झालर गर्भ से शिशु के साथ आती है, इन्ह भूमि पर नहीं रखा जा सकता तथा परिवार का पूज्य व्यक्ति ही इन्हें धारण कर सकता है। अत: निकट रिश्ते में पिता की बहन (बुआ) ही उपयुक्त मानी गई है। जो बहुत मनोयोग से पूर्ण सम्मान से गुड एवं आटे के पुआ (सता) बनाकर, उन पर झालर को लेती है। बाद में इसे पवित्र नदी या जलाशय में विसर्जित करती है। इस कार्य हेतु यदि सगी बुआ न हो, तो मामा, चाचा, मौसेरी, फुफेरी अथवा मुंहबोली बुआओं के द्वारा भी किया जा सकता है। बुआ को इसका उचित नेग भी दिया जावे।(विकल्प स्वरूप सता का निर्माण खोवा-शक़्क़र से भी होता है) झालर उतरने पश्चात एक सता झालर के साथ विसर्जित होता है , एवं एक दान किया जाता है। शेष सभी बुआयें जों उपिस्थत होती हैं आपस में नेग सहित बांट लेती है। बुआओं को नेंग उनकी संख्या देखकर यथाशक्ति अधिका अधिक राशि देना चाहियें। मान्यता यह भी है कि झालर वाले शिशु को बिना मुंडन के पवित्र नदी के पार बिना भेंट चढ़ाये नहीं ले जाना चाहिये।)

बड़ा मुण्डन अर्थात कर्णछेदन संस्कार :-

यह कार्य चौक के बाद एक प्रमुख संस्कार है, इसका बृहद आयोजन किया जाता है, विशेषत: पुत्र में। (पुत्रियों में इसका आयोजन नहीं किया जाता।) यह संस्कार विवाह के बराबर महत्व का है, इसके करते समय कुल देव का आवाहन पूजन (माँय भरना) आवश्यक होता है, जो विवाह के बराबर होती है। अत: सकल कुटुम्ब जो माँय मैहर से जुड़ा हो एवं बेटी, बहन, बुआ, मामा परिवार आदि को आमंत्रित कर भोजन कराना। माँये पाने वालों को माँय कोरा प्रसाद दिया जाता है। इस संस्कार को पूर्ण करने केवल नाई एवं स्वर्णकार अथवा बारी की आवश्यकता होती है। मातृका पूजन की पूर्ण तैयारी कर बालक को स्नान कराकर (उबटन लगाकर) पूर्ण नये वस्त्र, जूते लाल रंग के पहनाकर पटे पर बिठाकर तिलक, आरती करके, नाई द्वारा मुण्डन कर सोनी द्वारा कान छिदवाया जाता है। बालक को मिष्ठान्न खिलाकर मुंह मीठा किया जाता है तथा उपिस्थत लोग बालक की न्यौछावर कर नाई को देंते है। बालक को भी आमंत्रित रिश्तेदार उपहार देते हैं, तत्पश्चात कान छेदने वाले सोनी व नाई को रू.51/- या 21/- दिया जाता है। (वर्तमान समय में यह संस्कार अधिकतम परिवार बच्चे के अथवा बहन या भाइयों के विवाह के समय करने लगे है, कारण यह है कि अलग से दो बार कुल देव की पूजा का विस्तार न करना पडे़। आजकल के युवक लड़के कान नहीं छिदवाना चाहते, जबकि कान छिदवाना बड़े ही महत्व का है, इसके बैदिक तथा वैज्ञानिक सकारात्मक प्रभाव जीवन तथा शरीर की अनेक क्रियाओं को प्रभावित करते है।

संकलन कर्ता-रमेश बाबू गंधी, ग्वालियर (म.प्र.)